आत्मग्लानि"बातें अपने आप से"


मेरे अंदर विचारों का बवंडर,भूचाल सा रहता ।बहुत कुछ मैं लिखना चाहती, बहुत कुछ मैं कहना चाहती ,पर मेरे पास समय अभाव था। 

वैसे तो हर किसी के पास 24 घंटे ही होते हैं परंतु मेरे पास मेरे अन्य कामों की इतनी जिम्मेदारियां थी कि मैं एक पूरा करती तो दूसरा छूटता। मैं भागती रहती भागती रहती पर चाह कर भी अपने सारे कर्मों को सारी जिम्मेदारियों को एक दिन में यानी 24 घंटे में पूरा नहीं कर पाती थी ।

अतः जिन कामों को छोड़ सकती थी वे थे मेरे अपने खुद के काम ,मेरे अपने विचार, जिन्हें मैं कलम बंद नहीं कर पा रही थी और ये मेरे अंदर आत्मग्लानि का रूप लेकर मुझे परेशान करने लगे थे । मैं अंदर ही अंदर अपने विचारों को क्रमबद्ध ना कर पाने की दशा में परेशान रहती ।चाह कर भी मैं अपने विचारों को कलमबद्ध नहीं कर पाती।जब मैं अपने विचारों को पेन पेपर पर उतार नहीं पाती तो ऐसा लगता है कि मैं अपने विचारों की आत्महत्या कर रही हूँ। 

कई बार ऐसा लगता है कि अजन्मे शिशु को मैं मार रही हूँ,उसका गर्भपात कर रही हूँ। मेरे विचार इस दुनिया में आने के लिए बेचैन है, छट-पटा रहे हैं लेकिन सामाजिक बंधन व्यवस्था और बहुत सारी जिम्मेदारियों ने मुझे इस तरह से बांधकर रखा है कि मेरे विचार बाहर नहीं आ पा रहे हैं ।

कुछ भी हो मुझे तो लिखना ही होगा,अपने आप को सुनना ही होगा,भावनाओं की आत्महत्या जैसे गुनाह से बचना होगा ,अपने विचारों को गढ़ना ही होगा,आसमान में उड़ना होगा,उन्मुक्त हो विचारना ही होगा।
शायद तभी मैं अपनी कुंठा से मुक्त हो पाऊँगी।कदाचित लेखन ही एकमात्र उपाय है जिसके सहारे मैं अपने अंदर की पीड़ा से मुक्त हो पाऊँगी।अपने कर्मों के माध्यम से अपने आराध्य की आराधना कर जीवन संतुष्टि को प्राप्त कर सकूँगी।


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